सावरकर और कांग्रेस: क्या कांग्रेस सावरकर की विरासत को नकार कर राजनीतिक फंदे में फंसने वाली है?
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि पंडित नेहरू की राह पर चलने वाली कांग्रेस, विनायक दामोदर सावरकर की कट्टर विरोधी रही है। सावरकर, जिनके योगदान को स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, को कांग्रेस कभी भी पूरी तरह से नकार नहीं सकी। चाहे नेहरू हो, इंदिरा गांधी या आज के दौर में राहुल गांधी, इन नेताओं ने सावरकर के प्रति विरोधाभासी रुख अपनाया है। इस विरोधाभास को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, खासकर हाल के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के दौरान, जब एक मंच पर सावरकर का गीत गाया गया, और कांग्रेस चुप रही।
सावरकर और कांग्रेस का अजीब रिश्ता
कांग्रेस, जो हमेशा सावरकर के विचारों और कार्यों की आलोचना करती रही है, दरअसल उन्हें पूरी तरह से नकारने में कभी सफल नहीं रही। एक तरफ जहाँ सावरकर को लेकर कांग्रेस के नेताओं का रवैया तीव्र विरोधात्मक रहा है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के इतिहास में ऐसी कई घटनाएँ हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि सावरकर को सम्मान देने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी गई।
महात्मा गांधी, जो कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे, ने सावरकर की 1857: पहला भारतीय स्वाधीनता संग्राम पुस्तक की जमकर सराहना की थी। यह वही पुस्तक थी, जिसमें सावरकर ने 1857 के विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम करार दिया था। अंग्रेजों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन सावरकर ने इसका विरोध करते हुए इसे प्रकाशित किया। गांधी जी की सराहना के बावजूद कांग्रेस, सावरकर के विचारों से पूरी तरह असहमत रही, और उनका विरोध करती रही।
इसी तरह, इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए सावरकर की मृत्यु के बाद, उनके योगदान को याद करते हुए उनके ऊपर डाक टिकट जारी किया गया था। 1980 के दशक में सीपीआई के सदस्य हीरेन मुखर्जी ने संसद में सावरकर की मृत्यु पर शोक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। राहुल गांधी, जो आजकल सावरकर के विरोध में मुखर रहते हैं, इस ऐतिहासिक सच्चाई को नजरअंदाज करते हैं।
मुस्लिम वोट बैंक और सावरकर विरोध
यह सच्चाई तो यही है कि कांग्रेस, खासकर राहुल गांधी, सावरकर के प्रति जो विरोधात्मक रुख दिखाते हैं, उसका प्रमुख कारण मुस्लिम वोटों को अपनी तरफ खींचने की राजनीति है। चुनावी अभियानों में सावरकर पर की जाने वाली टिप्पणियाँ कांग्रेस के लिए मुस्लिम वोटों को लुभाने का एक सशक्त साधन बन गई हैं।
जब महाविकास अघाड़ी की सभा में सावरकर का गीत गाया गया, तब राहुल गांधी उस समय मंच पर नहीं थे, लेकिन जब वह आए, तब वह चुप रहे। इस चुप्पी से यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस अपनी स्थिति को लेकर असमंजस में है। सावरकर विरोधी बयान देने के बावजूद, कांग्रेस ने कभी सावरकर के योगदान को पूरी तरह नकारा नहीं किया। महाराष्ट्र में, जहाँ सावरकर का विरोध करना राजनीतिक रूप से मुश्किल हो सकता है, राहुल गांधी और उनकी पार्टी चुप रहते हैं।
राहुल गांधी और सावरकर: एक विवादास्पद संबंध
राहुल गांधी ने कुछ समय पहले सावरकर पर एक विवादास्पद टिप्पणी की थी, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी। इसके बाद, सावरकर के पोते, सात्यिकी सावरकर ने राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया। इस मुकदमे के बावजूद राहुल गांधी अपने बयान से पीछे नहीं हटे और सावरकर के खिलाफ बोलते रहे।
राहुल गांधी का यह विरोध राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक हिस्सा हो सकता है, क्योंकि उनका मानना है कि इस तरह के बयान उन्हें मुस्लिम समुदाय का समर्थन दिलाने में मदद करेंगे। हालांकि, उन्हें यह समझना चाहिए कि केवल मुस्लिम वोटों से चुनाव नहीं जीते जा सकते। ओबीसी और अन्य जातियों को लुभाने के लिए राहुल गांधी जाति जनगणना की बात करते हैं, लेकिन उनके सावरकर विरोध से महाराष्ट्र में ओबीसी और अन्य समाजों का समर्थन खोने का खतरा बढ़ सकता है।
सावरकर की वास्तविकता और राहुल गांधी की भूल
राहुल गांधी और कांग्रेस यह भूल जाते हैं कि विनायक सावरकर ने भारत के सामाजिक ढाँचे को लेकर महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए थे। सावरकर ने सबसे पहले हिन्दुत्व का नारा दिया था, जिसमें जातिवाद और सांप्रदायिकता का विरोध था। उनका हिंदुत्व विचार जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने के पक्ष में था।
महाराष्ट्र में सावरकर के खिलाफ बोलना कांग्रेस के लिए खतरनाक हो सकता है, क्योंकि यहां उनके समर्थकों की संख्या अधिक है। यही कारण है कि राहुल गांधी ने सावरकर के विरोध में एक शब्द भी नहीं बोला, जब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हो रहे थे।
सावरकर की विरासत: एक अलग दृष्टिकोण
प्रसिद्ध साहित्यकार प्रेम कुमार मणि सावरकर के बारे में कहते हैं कि उनका संघर्ष और दृष्टिकोण अलग था। उनका कहना है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक धाराएँ थीं, और हर नेता का संघर्ष अलग था। जैसे गांधी, नेहरू, भगत सिंह, अंबेडकर, और सुभाष चंद्र बोस का योगदान अलग-अलग था, वैसे ही सावरकर का योगदान भी एक अलग दिशा में था। मणि के अनुसार, "गांधी अपनी जगह हैं, और सावरकर अपनी जगह।"
रजनी पाम दत्त, एक अंग्रेजी लेखक, ने अपनी किताब "इंडिया टुडे" में इस समय के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि 1905 के बंगभंग प्रतिकार आंदोलन के बाद हिंदुत्व की राजनीति का विकास स्वाभाविक था। सावरकर इस विचारधारा के प्रतिनिधि थे और उनका योगदान भारतीय राजनीति और समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण था।
सावरकर का विरोध: एक राजनीति से प्रेरित निर्णय
कांग्रेस और राहुल गांधी का सावरकर विरोध, वास्तव में एक राजनीति से प्रेरित निर्णय है। यह एक दुविधा की स्थिति है, क्योंकि कांग्रेस सावरकर को न तो पूरी तरह से नकार सकती है और न ही पूरी तरह से अपना सकती है। जब चुनाव आते हैं और वोटबैंक की बात होती है, तो सावरकर विरोधी बयान कांग्रेस के लिए राजनीतिक फायदेमंद होते हैं। लेकिन जब चुनावों की बारी आती है, तो उन्हें अपनी चुप्पी से यह साबित करना होता है कि वे महाराष्ट्र में सावरकर के विरोध को खुलकर नहीं अपना सकते।
सावरकर की आलोचना और कांग्रेस की दुविधा यह बताती है कि भारतीय राजनीति में एक समय था जब सावरकर जैसे नेताओं का योगदान सही तरीके से मूल्यांकन नहीं किया गया। सावरकर का योगदान केवल स्वतंत्रता संग्राम तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज की संरचना और राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांग्रेस को इस विरोधाभासी स्थिति से बाहर निकलने की जरूरत है और समझना होगा कि सावरकर का योगदान भारतीय राजनीति और समाज के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
0 टिप्पणियाँ